Sunday, August 9, 2015


          कर्मवीर 
         अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं।
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं।
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं।।
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।।


आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही
मानते जो भी है सुनते हैं सदा सबकी कही
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं।।


जो कभी अपने समय को यों बिताते है नहीं
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं
आज कल करते हुए जो दिन गँवाते है नहीं
यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिये
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिये।।


व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर
वे घने जंगल जहां रहता है तम आठों पहर
गर्जते जल राशि की उठती हुई ऊँची लहर
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट
ये कंपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं।

Monday, April 13, 2015

13 अप्रैल 1919 (जालियाँवाला बाग) के शहीदों को नमन:

यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।
कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।
परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।
ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।
कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।
लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।
किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।
कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।
तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।
यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।
--रचनाकार: सुभद्राकुमारी चौहान
sabhar-google

Tuesday, February 11, 2014

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला 'जी कि यह रचना बचपन में न जाने कितनी बार कितने अवसरों पर  गुनगुनायी।आज साझा करने की  इच्छा हो रही है।  

वर दे वीणावादिनी

वर दे वीणावादिनी वर दे !
प्रिय स्वतंत्र-रव, अमृत-मंत्र नवभारत में भर दे ।
काट अंध उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष- भेद-तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दें !
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मंद्र रव
नव नभ के नव विहग-वृंद को नव पर, नव स्वर दे । 

Saturday, November 2, 2013

कवि  शिवमंगल सिंह सुमन की  सुंदर रचना
 
हम पंछी उन्मुक्त गगन के   शिवमंगल सिंह सुमन
हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे ।
हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से ।
स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले ।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने
लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक-अनार के दाने ।
होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी ।
नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो
लेकिन पंख दिए हैं तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।

Wednesday, October 30, 2013


दीपावली के शुभ अवसर पर  कवि गोपालदास "नीरज"की सुंदर,सारगर्भित कविता 


जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना 
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल, 
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले, 
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

Friday, September 13, 2013

पंo शिवमंगल सिंह सुमन द्वारा रचित यह कविता मुझे बहुत प्रिय है। इसलिए आपके साथ साझा कर रही हूँ। 
                                               आभार 
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,
 उस-उस राही को धन्यवाद।
जीवन अस्थिर अनजाने ही, 
हो जाता पथ पर मेल कहीं,
सीमित पग डग, लम्बी मंज़िल,

 तय कर लेना कुछ खेल नहीं।
दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते,

 सम्मुख चलता पथ का प्रसाद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,

 उस-उस राही को धन्यवाद।
साँसों पर अवलम्बित काया,
 जब चलते-चलते चूर हुई,
दो स्नेह-शब्द मिल गये, 

मिली नव स्फूर्ति, 
थकावट दूर हुई।
पथ के पहचाने छूट गये

 पर साथ-साथ चल रही याद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,
 उस-उस राही को धन्यवाद।
जो साथ न मेरा दे पाये,
 उनसे कब सूनी हुई डगर?
मैं भी न चलूँ यदि तो क्या,

 राही मर लेकिन राह अमर।
इस पथ पर वे ही चलते हैं, 

जो चलने का पा गये स्वाद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,

 उस-उस राही को धन्यवाद।
कैसे चल पाता
 यदि न मिला होता मुझको
 आकुल अंतर?
कैसे चल पाता यदि मिलते,

 चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर!
आभारी हूँ मैं उन सबका, 

दे गये व्यथा का जो प्रसाद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, 

उस-उस राही को धन्यवाद।

Thursday, September 5, 2013

मेरा गाँव मेरा देश: लिंकन का पत्र, उस शिक्षक के नाम जिसके यहाँ उनका बे...

मेरा गाँव मेरा देश: लिंकन का पत्र, उस शिक्षक के नाम जिसके यहाँ उनका बे...: सम्मानित महोदय,  मैं जानता हूँ कि इस दुनिया में सारे लोग अच्छे और सच्चे नहीं हैं। यह बात मेरे बेटे को भी सीखना होगी। पर मैं चाहता हूँ क...

Thursday, August 8, 2013

Thursday, October 4, 2012


सोचा था इस पोस्ट का लिंक attach करुँगी पर बहुत प्रयास के बाद भी ऐसा नहीं कर पाई .यह पोस्ट facebook में सुश्री किरण त्रिपाठी जी ने साझा की थी इसे सहेज कर रखने मात्र का एक प्रयास .....आभारी हूँ किरण जी आपकी ...

'भूल जाएँ कि गांधी को अंग्रेज़ी आती है...'

 मंगलवार, 2 अक्तूबर, 2012 को 08:02 IST तक के समाचार
महात्मा गांधी
गांधी के बारे में कहा जाता है कि वे अपनी बात लोगों तक पहुँचाने की कला में माहिर थे
कोलकाता में हालात अच्छे नहीं थे. हर तरफ फसाद. अल्लाह-ओ-अकबर, हर-हर महादेव के नारे. पथराव. आगज़नी. खून-खराबा. अगस्त 1947 के उसी पागलपन को रोकने की कोशिश कर रहे थे महात्मा गाँधी.
ऐसी ही स्थिति पंजाब में थी. वहां दंगे रोकने के लिए पूरी फ़ौज थी पर मारकाट रुक नहीं रही थी.
कोलकाता में फ़ौज तैनात नहीं थी. बस, एक व्यक्ति था. गाँधी. बगल में सुहरावर्दी, जिन्हें कांग्रेस में ज़्यादातर लोग पसंद नहीं करते थे. महात्मा से कह रहे थे कि उनसे दूर हो जाएं. साथ रहने में जान का खतरा है.
पर गाँधी ने किसी की नहीं सुनी.
कुछ दिन बाद जहां पंजाब में मारकाट जारी थी, कोलकाता में थम गई.
महात्मा गाँधी शाम ढले सुहरावर्दी के साथ लौट आए. कमरे में दरी पर नीचे बैठे थे. सुहरावर्दी वहीँ थे. तभी उन्हें बताया गया कि बीबीसी का एक संवाददाता आज़ादी की पूर्व संध्या पर भारत और शेष विश्व के नाम उनका एक सन्देश रिकार्ड करना चाहता है. गाँधी ने कोई जवाब नहीं दिया बात करते रहे.
संवाददाता के आग्रह पर थोड़ी देर बाद एक सहयोगी ने याद दिलाया पर कोई प्रतिक्रिया नहीं.
फिर उन्हें एक रुक्का मिला. संवाददाता ने कागज़ पर अपना अनुरोध लिखकर भेजा. महात्मा ने सुहरावर्दी से बातचीत बीच में रोककर उसे पढ़ा और उसी रुक्के के पीछे लिख दिया--ब्रितानियों को भूल जाना चाहिए कि गाँधी को कभी अंग्रेजी आती थी.
"दुर्भाग्य से गाँधी की हिंदुस्तानी-हिंदी आज़ादी के बाद लगातार पीछे छूटती गई. बंटवारे में वह भी बंट गई--हिंदी और उर्दू में. बंटवारा, जो गाँधी नहीं चाहते थे. क्षुब्ध थे, इसीलिए दिल्ली से चले गए. उस दिन, जब जवाहरलाल नेहरु ने 14 अगस्त की रात बारह बजे 'नियति से मिलन' का मशहूर भाषण दिया. गाँधी की कल्पना उस नियति की नहीं थी. उनकी कल्पना का देश दूसरा था. उस देश की भाषा दूसरी थी."
मधुकर उपाध्याय
भाषा के प्रति सजग
भाषा को लेकर महात्मा गाँधी हमेश बहुत सजग और सतर्क रहे. उस समय से,जब वह दक्षिण अफ्रीका से लौटे भी नहीं थे. वहीं काम कर रहे थे. डरबन और जोहानेसबर्ग में. क्योंकि भाषा उनके लिए सिर्फ अभिव्यक्ति का साधन नहीं,औज़ार भी थी.
बल्कि 1906-07 में, जब उन्होंने 'हिंद स्वराज' लिखा गाँधी भारतीय मूल के जिन लोगों के बीच काम कर रहे थे, उनकी भाषाएं अलग-अलग थीं.
मराठी, गुजराती, हिंदी, तमिल. अवधी, भोजपुरी, ब्रज जैसी बोलियां भी थीं. कुछ दीगर ध्वनियां भी. आपसी बातचीत में ये ध्वनियां मिलजुल जाती थीं,एक सार्थक नई ध्वनि पैदा करती.
इसके बावजूद, या संभवतः इसी से स्पष्ट था कि आपस में बातचीत 'हिन्दुस्तानी'में होती थी. दूसरी भाषाओं-बोलियों के शब्द उसमें सहज रूप से चले आते थे. यही स्थिति तत्कालीन भारत के दूसरे इलाकों में थी और लगता था कि दक्षिण अफ्रीका में उसी की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ रही है. यह समझना गाँधी के लिए यकीनन कठिन नहीं रहा होगा.
शायद यही वह भाषा थी, जिसकी कल्पना गाँधी ने आज़ाद भारत की 'राष्ट्रभाषा' के रूप में की थी. इस विचार ने वहीं जड़ें जमाईं.
महात्मा गाँधी ने अपनी आत्मकथा ' सत्य के साथ मेरे प्रयोग' में इसका ज़िक्र किया. हालांकि उन्होंने सिर्फ इतना लिखा था कि कांग्रेस की सभाओं में वह राजनीतिक विषय पर कम ही जोर दे रहे थे. उनका योगदान उन प्रारम्भिक सभाओं में भाषा पर था.
जोहानेसबर्ग और गांधी
गांधीजी
गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में ही भाषा की महत्ता को समझ लिया था
अभी हाल में जोहानेसबर्ग में, जहां तकरीबन सौ साल पहले गाँधी धाराप्रवाह अंग्रेजी में वकालत कर रहे थे, 22 से 24 सितम्बर तक विश्व हिंदी सम्मलेन हुआ तो इतिहास के तमाम पन्ने घूमकर सामने आ गए.
आखिरकार उसी धरती ने गाँधी को हिंदी-हिंदुस्तानी का विचार दिया था. उसे राष्ट्रभाषा बनाने की कल्पना जन्मी थी. भले उस समय वह वैसी नहीं थी, जैसी आज है. लेकिन वहां तो मेला था, जिसमें कुछ मिलता है तो कुछ खो भी जाता है. हिंदी वहां थी, हिंदुस्तानी 'खोया-पाया' शिविर के प्रसारणों में रह गई.
भारत लौटकर गाँधी हिंदुस्तानी पर लगातार सोचते रहे. इसी दौरान यह ख्याल आया कि हिंदुस्तानी को देवनागरी और फारसी दोनों लिपियों में लिखा जाए.
भारत वापसी के दो साल बाद भरूच और खेड़ा के अपने भाषणों में महात्मा गाँधी ने यह बात विस्तार से कही. सन 1917 में भरूच में उन्होंने लम्बा भाषण दिया और वह तर्क सामने रखे, जिनसे तय हो कि राष्ट्रभाषा कैसी हो. कौन हो. गाँधी ने जनता से पूछा कि वह कौन सी भाषा है जिसे अधिकारी वर्ग और आम जनता आसानी से सीख-समझ सकती है. कौन भाषा है जिसमें धार्मिक विचार रखे जा सकें. राजनीतिक बहसें हो सकें. आर्थिक मुद्दे उठाए जा सकें.
भाषण के अंत में उन्होंने कहा कि वह भाषा अंग्रेजी नहीं हो सकती. इसी सन्दर्भ में गाँधी ने कहा कि इस दृष्टि से केवल हिंदी ही वह भाषा हो सकती है जिसे राष्ट्रभाषा का दर्जा मिल सके.
"ब्रितानियों को भूल जाना चाहिए कि गाँधी को कभी अंग्रेजी आती थी."
आज़ादी के बाद महात्मा गांधी
जोहानेसबर्ग सुंदर है. अगर कोई इन हिदायतों के बावजूद कि शाम छह बजे के बाद अकेले बाहर न निकलें, मेले से निकलकर घूम फिर आए तो शहर और दिलकश हो जाता है. हैरानी होती है जब शहर का अश्वेत टैक्सी चालक 'मेरा जूता है जापानी' गुनगुनाता है और दूसरा अश्वेत, भाषा जाने बिना, उसका अर्थ समझ जाता है.
इस भाषा का ज़ुलू से टकराव नहीं होता. अंग्रेजी और अफ्रीकान आड़े नहीं आते. इस लिहाज से वह ज़मीन अब भी नहीं बदली है. वही है, जो सौ साल पहले थी. वही, जहां से महात्मा को हिंदी का विचार मिला. उसकी ताक़त का अंदाजा हुआ.
दुर्भाग्य से गाँधी की हिंदुस्तानी-हिंदी आज़ादी के बाद लगातार पीछे छूटती गई. बंटवारे में वह भी बंट गई--हिंदी और उर्दू में. बंटवारा, जो गाँधी नहीं चाहते थे. क्षुब्ध थे, इसीलिए दिल्ली से चले गए. उस दिन, जब जवाहरलाल नेहरु ने 14 अगस्त की रात बारह बजे 'नियति से मिलन' का मशहूर भाषण दिया, गाँधी की कल्पना उस नियति की नहीं थी.
उनकी कल्पना का देश दूसरा था. उस देश की भाषा दूसरी थी.

Saturday, September 22, 2012


प्रसाद की सुंदर रचना जिसके  कारण  उन्हे पलायनवादी कवि माना  गया (आने वाले अंकों में प्रसाद साहित्य को एक अलग नज़रिए से प्रस्तुत करने का प्रयास किया जायेगा )
ले चल वहाँ भुलावा देकर
ले चल वहाँ भुलावा देकर,
मेरे नाविक! धीरे धीरे।

जिस निर्जन मे सागर लहरी।
अम्बर के कानों में गहरी
निश्‍चल प्रेम-कथा कहती हो,
तज कोलाहल की अवनी रे।

जहाँ साँझ-सी जीवन छाया,
ढोले अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो
ताराओं की पाँत घनी रे ।

जिस गम्भीर मधुर छाया में
विश्‍व चित्र-पट चल माया में
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई,
दुख सुख वाली सत्य बनी रे।

श्रम विश्राम क्षितिज वेला से
जहाँ सृजन करते मेला से
अमर जागरण उषा नयन से
बिखराती हो ज्योति घनी से!
दिनकर जी की एक और कालजयी रचना
समर शेष है
ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो
किसने कहा, युद्ध की बेला गई, शान्ति से बोलो?
किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्नि के शर से
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूँ किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।

फूलों की रंगीन लहर पर ओ उतराने वाले!
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी शेष भारत में अंधियाला है।

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा आज भी मरघट सा संसार।

वह संसार जहाँ पर पहुँची अब तक नहीं किरण है,
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर-वरण है।
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्तस्तल हिलता है,
माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है।

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज,
सात वर्ष हो गए राह में अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रक्खे हैं किसने अपने कर में ?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी, बता किस घर में?

समर शेष है यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा,
और नहीं तो तुझ पर पापिनि! महावज्र टूटेगा।

समर शेष है इस स्वराज को सत्य बनाना होगा।
जिसका है यह न्यास, उसे सत्वर पहुँचाना होगा।
धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं,
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं,

कह दो उनसे झुके अगर तो जग में यश पाएँगे,
अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों -से बह जाएँगे।

समर शेष है जनगंगा को खुल कर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो।
पथरीली, ऊँची ज़मीन है? तो उसको तोडेंग़े।
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे।

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खंड-खंड हो गिरे विषमता की काली जंज़ीर।

समर शेष है, अभी मनुज-भक्षी हुँकार रहे हैं।
गाँधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं।
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है।

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लाल।

तिमिरपुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्कांड रचें ना!
सावधान, हो खड़ी देश भर में गांधी की सेना।
बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे!

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।
दिनकर जी की कवितायेँ ऊर्जा से परिपूर्ण होती है .
जवानी का झंडा
घटा फाड़ कर जगमगाता हुआ
आ गया देख, ज्वाला का बाण,
खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,
ओ मेरे देश के नौजवान!

सहम करके चुप हो गए थे समुन्दर
अभी सुनके तेरी दहाड़,
ज़मीं हिल रही थी, जहाँ हिल रहा था,
अभी हिल रहे थे पहाड़।
अभी क्या हुआ, किसके जादू ने आ करके
शेरों की सी दी जुबान?
खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,
ओ मेरे देश के नौजवान!

खड़ा हो कि धौंसे बजा कर जवानी
सुनाने लगी फिर धमार,
खड़ा हो कि अपने अहंकारियों को
हिमालय रहा है पुकार।
खड़ा हो कि फिर फूँक विष की लगा
धूर्जंटी ने बजाया विषाण,
खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,
ओ मेरे देश के नौजवान!

गरज कर बता सबको, मारे किसी के
मरेगा नहीं हिन्द-देश,
लहू की नदी तैर कर आ रहा है
कहीं से कहीं हिन्द-देश।
लड़ाई के मैदान में चल रहे ले के
हम उसका उड़ता निशान,
खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,
ओ मेरे देश के नौजवान!

अहा! जगमगाने लगी रात की
माँग में रौशनी की लकीर,
अहा! फूल हँसने लगे, सामने
देख, उड़ने लगा वह अबीर।
अहा! यह उषा होके उड़ता चला
आ रहा देवता का विमान,
खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,
ओ मेरे देश के नौजवान!

Friday, September 7, 2012

हरिवंश राय बच्चन की एक और कविता जो नव जीवन की प्रेरणा देती

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अंबर के आंगन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फ़िर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुबन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुरझाईं कितनी वल्लरियाँ
जो मुरझाईं फ़िर कहाँ खिलीं
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुबन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आंगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई
मृदु मिट्टी के बने हुए हैं
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन ले कर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फ़िर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं,मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई
                                                  —   हरिवंशराय बच्चन

Tuesday, July 10, 2012



पलाश विशवास  के फ़ेसबुक  पेज से साभार 

भारत में दुनिया के सबसे पहले विश्वविद्यालय तक्षशिला विश्वविद्यालय की स्थापना सातवीं शताब्दी ईसापूर्व यानी नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना से करीब १२०० साल पहले ही हो गई थी। यह नालंदा भारत का दूसरा प्राचीन विश्वविद्यालय है, जिसका पुनर्निर्माण किया जा रहा है। विश्वविद्यालय की स्थापना से काफी पहले यानी करीब १००० साल पहले गौतम बुद्ध के समय (५०० ईसापूर्व ) से ही नालंदा प्रमुख गतिविधियों का केंद्र रहा है।
तमाम बौद्ध साक्ष्यों में उल्लेख है कि गौतमबुद्ध नालंदा में कई बार आए थे। वहां एक आम के बगीचे में धम्म के संदर्भ में विचार विमर्श किया था। आखिरी बार गौतम बुद्ध नालंदा आए तो मगध के सारिपुत्त ने बौद्ध धर्म में अपनी आस्था जताई। यह भगवान बुद्ध का दाहिना हाथ और सबसे प्रिय शिष्यों में एक था। केवत्तसुत्त में वर्णित है कि गौतम बुद्ध के समय नालंदा काफी प्रभावशाली व संपन्न इलाका था। शिक्षा का बड़ाकेंद्र बनने तक यह घनी आबादी वाला जगह बन गया था। विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद दुनिया के सबसे लोकप्रिय जगहों में शुमार हो गया। बौद्ध ग्रंथ संयुक्त निकाय में यहां अकाल पड़ने का भी उल्लेख है। गौतम बुद्ध का शिष्य सारिपुत्त तो नालंदा में ही पैदा हुआ और यहीं इसका निधन भी हुआ ( सारिपुत्त के निधन की जगह नालका की पहचान की इतिहासकारो ने नालंदा से की है।
बौद्ध अनुयायी सम्राट अशोक ( २५०ईसापूर्व ) ने तो सारिपुत्त की याद में यहां बौद्ध स्तूप बनवायाथा। नालंदा तब भी कितना महत्वपूर्ण केंद्र था, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह जैन धर्मावलंबियों के लिए भी महत्वपूर्ण केंद्र था। जैन तीर्थंकर महावीर ने जिस पावापुरी में मोक्ष प्राप्त किया था, वह नालंदा में ही था। नालंदा पाचवीं शताब्दी में आकर शिक्षा के सबसे बड़े केंद्र में तब्दील हो गया।
अब पुनः अपनी स्थापना से करीब १५०० साल बाद विश्वप्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय के फिर से दुनिया का वृहद शिक्षाकेंद्र बनाने की नींव पड़ गई है। आज राज्यसभा ने इससे संबंधित विधेयक को मंजूरी दे दी। गुप्तराजाओं के उत्तराधिकारी औरपराक्रमी शासक कुमारगुप्त ने पांचवीं शताब्दी में इस विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। गुप्तों के बाद इसे महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। इस विश्वविद्यालय की नौवीं शती से बारहवीं शती तक अंतरर्राष्ट्रीयख्याति रही थी। सातवीं शती में जब ह्वेनसांग आया था उस समय १०००० विद्यार्थी और १५१० आचार्य नालंदा विश्वविद्यालय में थे। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे।

Tuesday, February 21, 2012

श्री हरिवंशराय बच्चन जी की कविता जो सबको निराशा में हौसला देती है

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

Tuesday, January 31, 2012

                              सोहनलाल दवेदी जी एक  सुंदर रचना
रामधारी सिंह दिनकर जी की यह कविता में बार बार पढती और गुनगुनाती हूँ  

Saturday, January 28, 2012

   [sa blaaga ka inamaa-Na AiQaktr AihndI BaaYaI laaogaaoM kao ihndI sao piricat kranao tqaa ivaYaya kI p`arMiBak jaanakarI hotu ikyaa gayaa hO.At: pazkgaNaaoM sao AnauraoQa hO ik iksaI BaI p`kar kI ~auiTyaaoM kao sauQaarnao tqaa maaga-dSa-na maoM sahayata kroM.   

Aaidkala sao hI Baart maoM AQyayana AQyaapna kao bahut mah<ava idyaa gayaa hO.AaEama vyavasqaa maoM ivad\yaa kao sava-EaoYz Qana kha gayaa hO.[sailae khto hOM
na caaOya- haya-ma\ na ca raja haya-ma.\
na BaatRBaajyama\ na ca Baarkair..
vyayao kRto vaQa-to evaM ina%yama\
ivaVa Qanama\ sava- Qanama\ p`Qaanama\..
Aqaa-t\ ivaVa$pI Qana kao kao[- caura nahIM sakta.rajaa dND ko $p maoM lao nahIM sakta ,Baa[- ihssao maoM baa^MT nahIM sakta.]saka kao[- baaoJa nahIM haota ,vah baa^MTnao sao ina%ya baZ,tI hO.ivaVa saba QanaaoM sao EaoYz hO. 
      ihndI ek vaO&ainak BaaYaa hO.yah dovanaagarI ilaip maoM ilaKI jaatI hO AaOr [samaoM KD,I baaolaI tqaa Anya BaaYaaAaoM ko Sabd pae jaato hOM.jaOsao dFtr ,fk- ,Aaid.Apnao Aitiqa dovaao Bava: kI ivaSaoYata kao cairtaqa- krto hue ihndI nao p`%yaok BaaYaa kao Apnaayaa hO.

saaQaarNat: yah QaarNaa hO ik ihndI ek kizna BaaYaa hO prMtu qaaoD,o sao p`yaasa tqaa saIKnao kI saMklpSai@t sao [sao AasaanaI sao samaJaa AaOr saIKa jaa sakta hO.
BaaYaa ko dao $p hOM k maaOiKk AaOr K ilaiKt
maaOiKk BaaYaa iksaI BaI BaaYaa ko baaolacaala ko $p kao maaOiKk BaaYaa khto hOM.[samaoM va@ta tqaa Eaaota BaaYaa ko maaOiKk $p baaolakr ka hI p`yaaoga krto hOM.
ilaiKt BaaYaa jaba manauYya kao lagaa ik BaaYaa ko maaOiKk $p sao ]saka kama nahIM calaogaa tba Apnao BaavaaoM AaOr ivacaaraoM kao sqaayaI $p donao ko ilae ]sanao BaaYaa ko ilaiKt $p kao Apnaayaa.   

vaNaao-M kI maalaa vaNa-maalaa khlaatI hO.[samaoM svar AaOr vyaMjana Aato hOM.
स्वर: A Aa [ [- ] } ? e eo Aao AaO AM A:
saBaI svaraoM ka p`yaaoga maa~aaAaoM kI trh ikyaa jaata hO.
व्यंजन:   k  K  ga  Ga D
          ca  C  ja  Ja Ha
          T  z   D  Z  Na
          t  qa  d  Qa  na
          p  f  ba  Ba  ma
          ya r   la  va
          Sa Ya  sa  h
           xa ~a & Ea

lihndI maoM iSaraoroKa A%yaMt mah<vapUNa- hO.kuC vaNaao-M pr yah pUrI tao kuC vaNaao_M pr AaQaI lagaa[- jaatI hO.jaOsao    Ba Qa ma Ga
lihndI ko Axar baae^M sao dae^M ilaKo jaato hOM.
ljaOsao  maOM Gar jaa rha hU^M.
lihndI ek vaO&ainak BaaYaa hO [sailae jaOsaI baaolaI jaatI hO vaOsaI hI ilaKI jaatI hO.yahI karNa hO ik phlaI kxaa maoM svar tqaa vyaMjanaaoM ko sahI ]ccaarNa pr jaaor idyaa jaata hO.
lK vaga- ka Aintma Axar D tqaa ca vaga- ka AMitma Axar  naaisa@ya vaNa- hO.[naka ]ccaarNa naak sao haota hO .Aajakla [na AxaraoM ka p`yaaoga samaaPtp`aya hao gayaa hO.
l‘k’ , ‘ca’ , ‘T’ , ‘t’ tqaa ‘p’ vaga- ka phlaa AaOr tIsara vaNa- laGau yaa (sva hO jaao QaIro sao ]ccaairt ikyaa  jaata hO.tao dUsara AaOr caaOqaa vaNa- dIGa- hO [sao jaaor dokr ]ccaairt ikyaa jaata hO.[sa inayama ka palana ivad\yaaiqa-yaaoM ko ilae laaBadayak isad\Qa haogaa.

lkao[- BaI vyaMjana svar ko ibanaa ]ccaairt nahIM haota ]da0
                 k\ +Aa (a) ka
lsvaraoM kI maa~aae^M haotI hOM vyaMjanaaoM kI nahIM.A kI kao[- maa~aa nahIM haotI.baarhKD,I kI rcanaa sao svaraoM kI maa~aae^M spYT haoMgaI.
          baarhKD,I kI rcanaa vyaMjana k
              k\ +(  ) k
   A  kI maa~aa p`aya: vyaMjana maoM ivalaIna hao jaatI hO.    
         k\ +Aa  (a)  =  ka
          k\ +[  ( i  =  k
           k\ +[-  ( I )  =  kI
          k\ +]  ( u )  =  ku
          k\ +}  ( U )  =  kU
          k\ +?  ( R )  =  kR
          k\ + e  ( o )  =  ko
          k\ + eo  ( O )  =  kO
          k\ + Aao  ( ao kao
           k\ + AaO  ( aO )  = kaO
          k\ + AM  ( M )  kM
             k\ + A: ( a: )  = k:
AM pr Aanao vaalaI ibandI kao ‘Anausvaar’tqaa A: ko Aagao Aanao vaalao ica*na kao ‘ivasaga-’ khto hOM.

lAa kI maa~aa : ilaKnao  tqaa  ]ccaarNa kI ivaiQa
kama ,Kanaa ,gaala ,
Gaasa , baala , talaa.
l[ tqaa [- kI maa~aa ko Sabd tqaa ]nako laoKna va ]ccaarNa maoM AMtr
                            idna        dIna
                            ipta       pIta
                            iKla      KIla
                            ibana       baIna
                            iklaa      kIla

l] tqaa } kI maa~aa ko Sabd tqaa ]nako laoKna va ]ccaarNa maoM AMtr
                            sauna      saUnaa 
                            caunaa      caUnaa
                            caura      caUra
                            baura      baUra
   gauma     GaUma
  r maoM ] Aqavaa } kI maa~aa naIcao na lagakr baIca maoM lagatI hO
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le tqaa eo kI maa~aa ko Sabd tqaa ]nako laoKna va ]ccaarNa maoM AMtr
 baola      baOla
tora     tOra
 maolaa     maOlaa
saor      saOr
maora     maOda
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Aaor      AaOr
kaona     kaOna
Kaola     KaOla
gaaora      gaaOr
baaonaa      baaOnaa

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ibandu yaa Anausvaar AaQao naaisa@ya vaNaao-M ko ilae p`yau@t haoto hOM .[samaoM naak maoM kma bala dokr Sabd ka ]ccaarNa ikyaa jaata hO.
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caMd`ibandu ka p`yaaoga ]sa samaya haota hO jaba iksaI vaNa- svar yaa vyaMjana ka ]ccaarNa krto samaya hvaa naak sao jyaada balapUva-k inakalaI jaae tqaa galao maoM iKMcaava mahsaUsa haota hO.
   caMda       caa^Md
   AMgaUr     A^MgaUza
   maMidr       ma^MDra
   hMsa         h^Msa
   baMdr      baa^MsaurI
   pMKa        p^Mava
  caMd`  ^ ka p`yaaoga AMga`oja,I SabdaoM kao ihndI maoM ilaKto samaya ikyaa jaata hO.jaOsao Da^@Tr ,ka^laoja Aaid.[saka ]ccaarNa krto samaya mau^Mh kao qaaoD,a gaaola krnaa pD,ta hO.