गांधी के बारे में कहा जाता है कि वे अपनी बात लोगों तक पहुँचाने की कला में माहिर थे
कोलकाता में हालात अच्छे नहीं थे. हर तरफ फसाद. अल्लाह-ओ-अकबर, हर-हर महादेव के नारे. पथराव. आगज़नी. खून-खराबा. अगस्त 1947 के उसी पागलपन को रोकने की कोशिश कर रहे थे महात्मा गाँधी.
ऐसी ही स्थिति पंजाब में थी. वहां दंगे रोकने के लिए पूरी फ़ौज थी पर मारकाट रुक नहीं रही थी.
कोलकाता में फ़ौज तैनात नहीं थी. बस, एक व्यक्ति था. गाँधी. बगल में सुहरावर्दी, जिन्हें कांग्रेस में ज़्यादातर लोग पसंद नहीं करते थे. महात्मा से कह रहे थे कि उनसे दूर हो जाएं. साथ रहने में जान का खतरा है.
पर गाँधी ने किसी की नहीं सुनी.
कुछ दिन बाद जहां पंजाब में मारकाट जारी थी, कोलकाता में थम गई.
महात्मा गाँधी शाम ढले सुहरावर्दी के साथ लौट आए. कमरे में दरी पर नीचे बैठे थे. सुहरावर्दी वहीँ थे. तभी उन्हें बताया गया कि बीबीसी का एक संवाददाता आज़ादी की पूर्व संध्या पर भारत और शेष विश्व के नाम उनका एक सन्देश रिकार्ड करना चाहता है. गाँधी ने कोई जवाब नहीं दिया बात करते रहे.
संवाददाता के आग्रह पर थोड़ी देर बाद एक सहयोगी ने याद दिलाया पर कोई प्रतिक्रिया नहीं.
फिर उन्हें एक रुक्का मिला. संवाददाता ने कागज़ पर अपना अनुरोध लिखकर भेजा. महात्मा ने सुहरावर्दी से बातचीत बीच में रोककर उसे पढ़ा और उसी रुक्के के पीछे लिख दिया--ब्रितानियों को भूल जाना चाहिए कि गाँधी को कभी अंग्रेजी आती थी.
"दुर्भाग्य से गाँधी की हिंदुस्तानी-हिंदी आज़ादी के बाद लगातार पीछे छूटती गई. बंटवारे में वह भी बंट गई--हिंदी और उर्दू में. बंटवारा, जो गाँधी नहीं चाहते थे. क्षुब्ध थे, इसीलिए दिल्ली से चले गए. उस दिन, जब जवाहरलाल नेहरु ने 14 अगस्त की रात बारह बजे 'नियति से मिलन' का मशहूर भाषण दिया. गाँधी की कल्पना उस नियति की नहीं थी. उनकी कल्पना का देश दूसरा था. उस देश की भाषा दूसरी थी."
भाषा के प्रति सजग
भाषा को लेकर महात्मा गाँधी हमेश बहुत सजग और सतर्क रहे. उस समय से,जब वह दक्षिण अफ्रीका से लौटे भी नहीं थे. वहीं काम कर रहे थे. डरबन और जोहानेसबर्ग में. क्योंकि भाषा उनके लिए सिर्फ अभिव्यक्ति का साधन नहीं,औज़ार भी थी.
बल्कि 1906-07 में, जब उन्होंने 'हिंद स्वराज' लिखा गाँधी भारतीय मूल के जिन लोगों के बीच काम कर रहे थे, उनकी भाषाएं अलग-अलग थीं.
मराठी, गुजराती, हिंदी, तमिल. अवधी, भोजपुरी, ब्रज जैसी बोलियां भी थीं. कुछ दीगर ध्वनियां भी. आपसी बातचीत में ये ध्वनियां मिलजुल जाती थीं,एक सार्थक नई ध्वनि पैदा करती.
इसके बावजूद, या संभवतः इसी से स्पष्ट था कि आपस में बातचीत 'हिन्दुस्तानी'में होती थी. दूसरी भाषाओं-बोलियों के शब्द उसमें सहज रूप से चले आते थे. यही स्थिति तत्कालीन भारत के दूसरे इलाकों में थी और लगता था कि दक्षिण अफ्रीका में उसी की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ रही है. यह समझना गाँधी के लिए यकीनन कठिन नहीं रहा होगा.
शायद यही वह भाषा थी, जिसकी कल्पना गाँधी ने आज़ाद भारत की 'राष्ट्रभाषा' के रूप में की थी. इस विचार ने वहीं जड़ें जमाईं.
महात्मा गाँधी ने अपनी आत्मकथा ' सत्य के साथ मेरे प्रयोग' में इसका ज़िक्र किया. हालांकि उन्होंने सिर्फ इतना लिखा था कि कांग्रेस की सभाओं में वह राजनीतिक विषय पर कम ही जोर दे रहे थे. उनका योगदान उन प्रारम्भिक सभाओं में भाषा पर था.
जोहानेसबर्ग और गांधी
गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में ही भाषा की महत्ता को समझ लिया था
अभी हाल में जोहानेसबर्ग में, जहां तकरीबन सौ साल पहले गाँधी धाराप्रवाह अंग्रेजी में वकालत कर रहे थे, 22 से 24 सितम्बर तक विश्व हिंदी सम्मलेन हुआ तो इतिहास के तमाम पन्ने घूमकर सामने आ गए.
आखिरकार उसी धरती ने गाँधी को हिंदी-हिंदुस्तानी का विचार दिया था. उसे राष्ट्रभाषा बनाने की कल्पना जन्मी थी. भले उस समय वह वैसी नहीं थी, जैसी आज है. लेकिन वहां तो मेला था, जिसमें कुछ मिलता है तो कुछ खो भी जाता है. हिंदी वहां थी, हिंदुस्तानी 'खोया-पाया' शिविर के प्रसारणों में रह गई.
भारत लौटकर गाँधी हिंदुस्तानी पर लगातार सोचते रहे. इसी दौरान यह ख्याल आया कि हिंदुस्तानी को देवनागरी और फारसी दोनों लिपियों में लिखा जाए.
भारत वापसी के दो साल बाद भरूच और खेड़ा के अपने भाषणों में महात्मा गाँधी ने यह बात विस्तार से कही. सन 1917 में भरूच में उन्होंने लम्बा भाषण दिया और वह तर्क सामने रखे, जिनसे तय हो कि राष्ट्रभाषा कैसी हो. कौन हो. गाँधी ने जनता से पूछा कि वह कौन सी भाषा है जिसे अधिकारी वर्ग और आम जनता आसानी से सीख-समझ सकती है. कौन भाषा है जिसमें धार्मिक विचार रखे जा सकें. राजनीतिक बहसें हो सकें. आर्थिक मुद्दे उठाए जा सकें.
भाषण के अंत में उन्होंने कहा कि वह भाषा अंग्रेजी नहीं हो सकती. इसी सन्दर्भ में गाँधी ने कहा कि इस दृष्टि से केवल हिंदी ही वह भाषा हो सकती है जिसे राष्ट्रभाषा का दर्जा मिल सके.
"ब्रितानियों को भूल जाना चाहिए कि गाँधी को कभी अंग्रेजी आती थी."
आज़ादी के बाद महात्मा गांधी
जोहानेसबर्ग सुंदर है. अगर कोई इन हिदायतों के बावजूद कि शाम छह बजे के बाद अकेले बाहर न निकलें, मेले से निकलकर घूम फिर आए तो शहर और दिलकश हो जाता है. हैरानी होती है जब शहर का अश्वेत टैक्सी चालक 'मेरा जूता है जापानी' गुनगुनाता है और दूसरा अश्वेत, भाषा जाने बिना, उसका अर्थ समझ जाता है.
इस भाषा का ज़ुलू से टकराव नहीं होता. अंग्रेजी और अफ्रीकान आड़े नहीं आते. इस लिहाज से वह ज़मीन अब भी नहीं बदली है. वही है, जो सौ साल पहले थी. वही, जहां से महात्मा को हिंदी का विचार मिला. उसकी ताक़त का अंदाजा हुआ.
दुर्भाग्य से गाँधी की हिंदुस्तानी-हिंदी आज़ादी के बाद लगातार पीछे छूटती गई. बंटवारे में वह भी बंट गई--हिंदी और उर्दू में. बंटवारा, जो गाँधी नहीं चाहते थे. क्षुब्ध थे, इसीलिए दिल्ली से चले गए. उस दिन, जब जवाहरलाल नेहरु ने 14 अगस्त की रात बारह बजे 'नियति से मिलन' का मशहूर भाषण दिया, गाँधी की कल्पना उस नियति की नहीं थी.
उनकी कल्पना का देश दूसरा था. उस देश की भाषा दूसरी थी.