Saturday, November 2, 2013

कवि  शिवमंगल सिंह सुमन की  सुंदर रचना
 
हम पंछी उन्मुक्त गगन के   शिवमंगल सिंह सुमन
हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे ।
हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से ।
स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले ।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने
लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक-अनार के दाने ।
होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी ।
नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो
लेकिन पंख दिए हैं तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।

Wednesday, October 30, 2013


दीपावली के शुभ अवसर पर  कवि गोपालदास "नीरज"की सुंदर,सारगर्भित कविता 


जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना 
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल, 
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले, 
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

Friday, September 13, 2013

पंo शिवमंगल सिंह सुमन द्वारा रचित यह कविता मुझे बहुत प्रिय है। इसलिए आपके साथ साझा कर रही हूँ। 
                                               आभार 
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,
 उस-उस राही को धन्यवाद।
जीवन अस्थिर अनजाने ही, 
हो जाता पथ पर मेल कहीं,
सीमित पग डग, लम्बी मंज़िल,

 तय कर लेना कुछ खेल नहीं।
दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते,

 सम्मुख चलता पथ का प्रसाद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,

 उस-उस राही को धन्यवाद।
साँसों पर अवलम्बित काया,
 जब चलते-चलते चूर हुई,
दो स्नेह-शब्द मिल गये, 

मिली नव स्फूर्ति, 
थकावट दूर हुई।
पथ के पहचाने छूट गये

 पर साथ-साथ चल रही याद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,
 उस-उस राही को धन्यवाद।
जो साथ न मेरा दे पाये,
 उनसे कब सूनी हुई डगर?
मैं भी न चलूँ यदि तो क्या,

 राही मर लेकिन राह अमर।
इस पथ पर वे ही चलते हैं, 

जो चलने का पा गये स्वाद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,

 उस-उस राही को धन्यवाद।
कैसे चल पाता
 यदि न मिला होता मुझको
 आकुल अंतर?
कैसे चल पाता यदि मिलते,

 चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर!
आभारी हूँ मैं उन सबका, 

दे गये व्यथा का जो प्रसाद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, 

उस-उस राही को धन्यवाद।

Thursday, September 5, 2013

मेरा गाँव मेरा देश: लिंकन का पत्र, उस शिक्षक के नाम जिसके यहाँ उनका बे...

मेरा गाँव मेरा देश: लिंकन का पत्र, उस शिक्षक के नाम जिसके यहाँ उनका बे...: सम्मानित महोदय,  मैं जानता हूँ कि इस दुनिया में सारे लोग अच्छे और सच्चे नहीं हैं। यह बात मेरे बेटे को भी सीखना होगी। पर मैं चाहता हूँ क...

Thursday, August 8, 2013