Friday, September 13, 2013

पंo शिवमंगल सिंह सुमन द्वारा रचित यह कविता मुझे बहुत प्रिय है। इसलिए आपके साथ साझा कर रही हूँ। 
                                               आभार 
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,
 उस-उस राही को धन्यवाद।
जीवन अस्थिर अनजाने ही, 
हो जाता पथ पर मेल कहीं,
सीमित पग डग, लम्बी मंज़िल,

 तय कर लेना कुछ खेल नहीं।
दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते,

 सम्मुख चलता पथ का प्रसाद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,

 उस-उस राही को धन्यवाद।
साँसों पर अवलम्बित काया,
 जब चलते-चलते चूर हुई,
दो स्नेह-शब्द मिल गये, 

मिली नव स्फूर्ति, 
थकावट दूर हुई।
पथ के पहचाने छूट गये

 पर साथ-साथ चल रही याद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,
 उस-उस राही को धन्यवाद।
जो साथ न मेरा दे पाये,
 उनसे कब सूनी हुई डगर?
मैं भी न चलूँ यदि तो क्या,

 राही मर लेकिन राह अमर।
इस पथ पर वे ही चलते हैं, 

जो चलने का पा गये स्वाद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,

 उस-उस राही को धन्यवाद।
कैसे चल पाता
 यदि न मिला होता मुझको
 आकुल अंतर?
कैसे चल पाता यदि मिलते,

 चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर!
आभारी हूँ मैं उन सबका, 

दे गये व्यथा का जो प्रसाद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, 

उस-उस राही को धन्यवाद।

Thursday, September 5, 2013

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