Tuesday, February 11, 2014

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला 'जी कि यह रचना बचपन में न जाने कितनी बार कितने अवसरों पर  गुनगुनायी।आज साझा करने की  इच्छा हो रही है।  

वर दे वीणावादिनी

वर दे वीणावादिनी वर दे !
प्रिय स्वतंत्र-रव, अमृत-मंत्र नवभारत में भर दे ।
काट अंध उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष- भेद-तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दें !
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मंद्र रव
नव नभ के नव विहग-वृंद को नव पर, नव स्वर दे ।