Tuesday, February 11, 2014

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला 'जी कि यह रचना बचपन में न जाने कितनी बार कितने अवसरों पर  गुनगुनायी।आज साझा करने की  इच्छा हो रही है।  

वर दे वीणावादिनी

वर दे वीणावादिनी वर दे !
प्रिय स्वतंत्र-रव, अमृत-मंत्र नवभारत में भर दे ।
काट अंध उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष- भेद-तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दें !
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मंद्र रव
नव नभ के नव विहग-वृंद को नव पर, नव स्वर दे । 

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    माँ सरस्वती को नमन।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (12-02-2014) को "गाँडीव पड़ा लाचार " (चर्चा मंच-1521) पर भी होगी!
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. वर दे!
    माँ सरस्वती !
    हम बच्चे तेरे...
    तेरे आशीषों के भूखे...

    ~सादर

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  3. Merit rachna ki prastuti hetu dhanyawad

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