Saturday, September 22, 2012


प्रसाद की सुंदर रचना जिसके  कारण  उन्हे पलायनवादी कवि माना  गया (आने वाले अंकों में प्रसाद साहित्य को एक अलग नज़रिए से प्रस्तुत करने का प्रयास किया जायेगा )
ले चल वहाँ भुलावा देकर
ले चल वहाँ भुलावा देकर,
मेरे नाविक! धीरे धीरे।

जिस निर्जन मे सागर लहरी।
अम्बर के कानों में गहरी
निश्‍चल प्रेम-कथा कहती हो,
तज कोलाहल की अवनी रे।

जहाँ साँझ-सी जीवन छाया,
ढोले अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो
ताराओं की पाँत घनी रे ।

जिस गम्भीर मधुर छाया में
विश्‍व चित्र-पट चल माया में
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई,
दुख सुख वाली सत्य बनी रे।

श्रम विश्राम क्षितिज वेला से
जहाँ सृजन करते मेला से
अमर जागरण उषा नयन से
बिखराती हो ज्योति घनी से!

2 comments:

  1. सुन्दर प्रस्तुति, सुन्दर भावाभिव्यक्ति.

    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें , अपना स्नेह प्रदान करें.

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